कामदेव सदृश ऋतुराज़ मलंग
कामदेव सदृश ऋतुराज़ मलंग
आया मदमस्त इठलाता बसंत मलंग,
कामदेव सदृश भाव लिए ऋतुराज संग !
लो बीत गयी अब शरद,शीत की रातें,
ऋतु बसंत की मधुरिमा मधु भर लाई !
तत्पर फल चखने को जाग्रत हो गई,
मानो धरा गगन पर छा गई है तरुणाई !
मादक मंद मंद पवन बहती जा रही,
चित को मदहोश कर रही है पुरवाई !
पुलक - पुलक कर कह रहा है ये मन,
तन में सिरसी कोल कामुक अंगड़ाई !
वन और उपवन सब महककर उठे हैं,
खिल रही हैं घर आंगन और फुलवारी !
मधुकर गुंजन कर रहे हैं अब चहुंओर,
हॅ॑स विहॅ॑स रही है निशा संग विभावरी !
मधुरस अमृत लिए दे रही है आमंत्रण,
मानो बन रही कोई श्रंगारित सजी नागरी !
खग कुल कलरव यूँ चहककर बोल रहा,
किसलय सी मदमस्त डोल रही है गागरी !
ऋतुराज आकर यूँ खड़े हुए प्रकृति समक्ष,
मानो बसंत सुना रहा हो अभिनव सा मीता !
प्रयत्न कर रहा सुमन उपवन से सुगंध हरने,
मन आनंदित हो कर नाच रही कोई मन मीता !
फूट रहीं हैं अरुण किरण कोमल कपोलों से,
बसंत की रुत यूँ ही न जाये इस साल भी बीता !
प्रेम पनघट पर झड़ रहा बहुत सारा नील नीर,
लगे अब मधु सा हाय घट मेरा रह न जाये रीता !
ऋतुराज दे रहे प्रेम पूर्ण मधुर मान आमंत्रण,
सुरभित तन को अपने अंक बाहुपाश में भर लो !
अपरमित प्यार की यूँ बजाओ सुर मन सरगम,
तपन मिटाओ हिय की मन में आहलाद भर लो !
अनल अमावस सा आच्छादित मन को तृप्त कर,
सिन्धु - शैल से अपरिमित मन को मृदुल कर लो !
प्रणय गीत की मृदु - मधुर प्रेम मयी शुभ धुनों से,
अपनी चिर नवीन माॅ॑ग कामदेव से अद्भुत वर लो !