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Bhavna Thaker

Tragedy

4  

Bhavna Thaker

Tragedy

काले रंग का युद्ध

काले रंग का युद्ध

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नहीं ढ़ाल पाता कोई मातम की कहानियाँ शब्दों में

तार-तार होता है सिना कागज़ का और कलम रूठ जाती है,

कल्पना से ही कराह उठती है कलम कितनी कंटीली होती है युद्ध की बीना..  

 

काला रंग युद्ध का 

आगाज़ होते ही आबोहवा में सैंकडों सिसकियाँ उठती है,

निर्जनता का कफ़न ओढ़े शहर मर जाते है,

धमाकों की गूँज से आहत होते शांति कामना में

उठते हाथों में डर की कंपकपी होती है..

 

बदल जाते है कई महल मलबों में,

उज़ड जाती है रियासतें पल भर में, 

मांग भरी वनिता धवल छवि धारण करते बेवा में तब्दील हो जाती है,

देश दस साल पीछे चला जाता है.. 


छीन जाते है जवान हाथ बुढ़े कँधों से

बच्चों के सर से बाप के साये उठ जाते है,

धरती का सिना रक्त रंजीत होते रंग जाता है शहीदों के खून से,

खुशियों के हसीन पल धमाकों में खोकर चित्कार में बदल जाते है..


नहीं बदलती राजाओं के अहं की चिंगारी आत्मग्लानी में,

न ही पश्चाताप की शिकन सूरत पे नज़र आती है,

आम इंसान के असबाब की कहानी युद्ध की

रक्त रंगी अग्नि में ढ़ेर होते ख़ाक़ में मिल जाती है..


तब कहीं जाके कितने मकबरों पर

एक शहंशाह अपने अहं के महल की नींव रख पाता है।


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