तुम गये कहाँ, तुम कहाँ गये !
तुम गये कहाँ, तुम कहाँ गये !
चुपके चुपके खो गए साज, मन की कोमल तरुणाई से ।
तुम गये कहाँ, तुम कहाँ गये, हो दूर मेरी तनहाई से ।।
व्याकुलता के सारे मौसम, आकर के मुझपर टूट पड़े ।
जब बंधन अहसासों वाले, बस खेल खेल में छूट पड़े ।
बरसात मेरी इन आँखों की, हो गयी दूर अंगडाई से....
तुम गये कहाँ तुम .......।।
मन एक नही तो फिर कैसे, सासों के गीत महकते थे ।
तन की निर्मलता नहीं बची, तो फूल कहाँ से खिलते थे ।
जो सच क्या है सुनना है तो, पूछो अपनी परछाई से...
तुम कहाँ गये तुम.....!!
क्यों बरसे बनकर कल चन्दन, जब तुमको ऐसे जलना था ।
क्यों स्वप्न दिए इन आँखों को, एक रोज इन्हें जब छलना था ।
आ जाओ मेरे इन सपनों को , ले जाओ चुभन की खाई से....
तुम गये कहाँ .............!!
बिस्तर सारे फूलों वाले, काँटों के जैसे चुभते हैं ।
अब मंद हवा के झोके भी, इस मन को बेहद खलते हैं ।
अहसास गये तुम बिखर गए, तिनका-तिनका हो राई से..
तुम गये कहाँ तुम.........!!
सावन आँखों से दूर नहीं, पतझड़ है मन मजबूर नहीं।
आँखों में घनी उदासी है, शायद ये नदिया प्यासी है ।
तुम गए छिनी हरियाली भी, जीवन की इस अमराई से....
तुम कहाँ...............!!
कुछ घाव अभी भी जिन्दा हैं, जो दिखलाने से दिखे नहीं ।
सुख चैन सभी लुट गए मगर, ये आंसू फिर भी बिके नहीं ।
ये अश्रु कमाए थे हमने, चाहत की इसी कमाई से ....
तुम कहाँ गए..............!!