बादल
बादल
एक बादल
जिसे एहसास था
मेरे खालीपन का
जो बाहर से नहीं अन्दर से था
खडा़ है द्वार पर बरसने जी भर
मैं बेबस नजरंदाज करती हुई
बंजर सी बहे जा रही हूं
अपनी ही रवानी में
कहां पता है किसी को
उस खालीपन का ,
सबके लिए तो मैं
साफ सुथरे जल से लबालब
एक नदिया हूं
उसकी हर कोशिश को नाकाम कर
मैं अपने नदी होने के गुमान को
जिन्दा रख लेती हूँ
बहुत कुछ कहती हैं उसकी गहरी आंखे
जी चाहता है डूब जाने को
मगर एक डर कि कहीं लोग हंसे ना
कोई नदी डूबी है भला
किसी बादल की आंखों में
बस इसी कशमकश में
खाली है नदी बहुत खाली भीतर से
और बादल
वो तो आज भी बैठा है इन्तजार में
बादलों की ओट में मुस्कराता.....

