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सीमा शर्मा सृजिता

Others

4.0  

सीमा शर्मा सृजिता

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जुगनू

जुगनू

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सबकुछ शून्य होने की महसूसता में भी 

मेरे कानों तक पहुंच रही है झींगुर की आवाज 

कुछ गुनगुना रहा है शायद 

मैं नहीं जानती ये गीत दुख के हैं या सुख के 

मुझे अवचेतना में लाने हेतु इनका गीत होना ही काफी है

सुषुप्त पड़ी मेरी धमनियों में कुछ दौड़ रहा है


अब मैं सुन रही हूं घड़ी की टिक-टिक भी 

कहीं दूर से आ रही है कुत्तों के रोने की आवाज़

मैं आज तक समझ नहीं पाई इनके रोने का कारण

घर के किसी कोने में टपक रहा है नल 

मैं सुन रही हूं टप टप टप टप

किसी इंसान की आवाज दूर दूर तक नहीं 


आंखों की पुतलियों में जंग छिड़ी है 

डरकर आंखें खुल पड़ी हैं 

मैं देख रही हूं कमरे की खिड़की पर 

चमक रहा है एक जुगनू 

कितना सुन्दर कितना दिव्य

मैं छुपाना चाहती हूं उसे अपनी हथेलियों में 

मैं उस पर प्रेम उढेल दूंगी 

मैंने दौड़कर पकड़ा है उसे और बंद कर लिय

ा है 

वह अब मेरा है बस मेरा 


ये क्या जिसे मैं प्रेम कह रही हूं 

उसके लिए कैद है

मेरी हथेली में कैद वह लड़ रहा है 

कुछ खुजला रही हैं हथेलियां 

मैं एक आंख से अंगूठे को चश्मा बना देख रही हूं

वह बेबस सा सिसक रहा है मेरी कैद में

मगर लड़ रहा है बराबर 

मेरे तन के कानों में तो इतनी सामर्थ्य नहीं 

मगर मेरे मन के कान सुन रहे हैं 

उसके मन से निकले दारुण स्वर

मेरी हथेलियों में खुजली बढ़ रही है


मैंने झट से फैला दी है अपनी हथेली 

वह उड़ गया है 

उसे मुस्कराया देख मैं हंस पड़ी हूं

मेरे हंसते ही बिखर गए हैं 

मेरे कमरे में असंख्य जुगनू 

और चमक रहे हैं चम चम चम चम


अदृश्य हथेलियों में क़ैद दुनिया के तमाम कैदियों 

तुम जुगनू हो जाओ 

और लड़ते रहो

जब तक खुल न जाये हथेली ।

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