उदास बैठी हैं गिलहरियां
उदास बैठी हैं गिलहरियां


प्रेम अपनी बाहें फैलाए समक्ष खड़ा था
मैं दौड़ कर समा जाना चाहती थी उसमें
मगर उसकी बाजुओं में कांटे लगे थे
मैं जान गई थी निश्चित ही लहूलुहान होकर लौटूंगी
या फिर कभी लौट ही नहीं पाऊंगी
प्रेम सदियों से पुकार रहा था मेरा नाम
ठीक वैसे जैसे कोई योगी भज रहा हो ईश का भजन
उसकी लाख अनुनय विनय पर भी निर्मोही बनी मैं
बस देख रही थी उसे बहुत दूर से
हमारे बीच में बन गया था आठवां समंदर
जिसकी खबर अभी तक जमाने को नहीं थी
और वो कैसे बना उसकी खबर मुझको भी नहीं थी
उस समंदर के पानी में सात नहीं बहते थे आठ रंग
उस समंदर में बहने वाली स्वर्णिम मछलियों की
छोटी छोटी आंखों से पानी नहीं , बहता था रंग
शायद वही आठवां रंग
जिसकी जमाने को अब तक खबर नहीं थी
मैं बार बार उस समंदर के पानी में रखती पैर
और बार बार वापस कर लेती
मुझे डर था मैं गई तो लौट नहीं पाऊंगी
जबकि मेरा लौटना उतना ही जरूरी था
जितना प्राणायाम में श्वास के छूट जाने पर वापस लौटना
प्रेम जब जब रो
पड़ता मेरी निष्ठुरता पर
तब तब बढ़ जाता इस आठवें समंदर का पानी
मैं बहुत दूर खड़ी होती फिर भी छू जाता मुझे
उसके छूने भर से मेरी नाभि में उग आते पलाश के फूल
मेरी धड़कनों से निकल पड़ता आठवां स्वर
मेरी आंखों में नृत्य करने लगते असंख्य जुगनू
और चहुं ओर दौड़ पड़ती रंग बिरंगी तितलियां
प्रेम तक ना पहुंच पाने की मेरी बेबसी पर
तरस खाकर उदास बैठी हैं गिलहरियां
गिलहरियों का उदास होना बिल्कुल भी ठीक नहीं
मैं जानती हूं मगर मैं अभी कुछ नहीं कर सकती
आठवें समंदर के पार खड़े मेरे उस प्रेमी को
अभी एकाध जन्म और करनी होगी तपस्या
मैं जाऊंगी एक दिन उसके पास कभी न लौटने के लिए
निकालूंगी अपनी पलकों से उसकी बाजुओं से कांटे
रख दूंगी उसके घावों पर अपने दो गुलाबी फूल
और सुनूंगी उसके सीने में बज रहे सितार से निकला नाद
मैं जानती हूं !
उस दिन नाच उठेंगी ये उदास गिलहरियां
और जमाना जान जायेगा प्रेमियों की अजब दुनिया में
होता है
आठवां सागर, आठवां रंग और आठवां स्वर भी ।