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Deepti Agrawal

Romance Tragedy

4.2  

Deepti Agrawal

Romance Tragedy

आम का पेड़

आम का पेड़

2 mins
748


तुम्हारे अहाते के

उस आम के पेड़ का

पीला पड़ा पत्ता

उड़ आया था मेरे खेत में

निर्मोही पुरवैया के साथ

उठा हाथ में जो रखा

दिला दी याद उसने वो सारी बीती बात


माँ के बखान ने 

कैसा मचाया बवाल 

दौड़ भाग आ गया था कोठी 

जानने तुम्हारा हाल

नन्हे हाथ और नन्हे पैर 

हो गया था बावरा मैं

देख के तुम्हारे कोमल नैन

ठाना था तभी मन में

तुम्ही हो मेरी जीवन संगिनी


कितना बना मज़ाक था में

अभी से क्या सोचना इतना

बड़ी तो इसे हो जाने दे

ऐसा कह टाल दिया

रखा नहीं मेरा मान

मेरी बात हंसी में उड़ा

ठेस पहुंचाई थी मुझे

तुम तो बस गयी थी मुझ में

उसी पल से रग रग में


पायल की झंकार

गूंजाती मेरा मन

छन छन करती तुम 

आ गयी जीवन में

तोतली जुबां में मुझे पुकारना

कर देता मुझे बेहाल

तब सोचा था 

पछाड़ दूँगा में अपना काल


धीरे धीरे बड़े हुए

सुर और ताल मिलते रहे

ऊँच नीच का किसे था ज्ञान

हम दोनों तो थे बालक अंजान

नन्हे कदमों से जब

सीखा तुमने चढ़ जाना पेड़

उसी की डाल पर बैठ

बुन डाले सपने कितने


मीठे आम और तुम्हारी हंसी

तीर सी घायल करती थी 

हमें क्या पता था की

वो तो बस ठिठोली थी

झूला झूल उसकी छांव में

हँसते और खिलखिलाते थे

कहाँ बीता वक़्त तब

इसका न था कोई भान


चौदह की तुम हो चली थीं

मेरे मन में पूरी बस चुकी थीं

चाहत चढ़ी परवान

जल्दी थी तब मुझे

करने को कोई नौकरी

आखिर ब्याह कर लाना था

तुमको अपनी ड्योढ़ी


ठाकुर साहब को जैसे 

खलने लगी हमारी जोड़ी

लगा दी थी हम दोनों पर

पैनी नज़र की लगाम

इस सब में हम भूल गए

स्वछंद खेलना और 

तोड़ खाना वो मीठे आम

भूल दुनिया का मेला

खो गए थे एक दूजे में


ठाकुरजी ने 

उसी पेड़ की ठंडी छांव

में किया तुम्हारा हाथ 

चौधरी के नाम

कैसी मौन चीखी थी तुम

मैं खड़ा रहा देखता 

चुप

क्या कहता? कैसे कहता?

करता जो नहीं था कुछ काम


दो दिन भी नहीं बीते थे

उस पेड़ के आम भी नहीं 

पके थे

क्यों मूंदी तुमने आँख

क्यों छोड़ दिया मेरा साथ

मेरा कुछ तो करती 

इंतज़ार

शायद मैं आ ही जाता


वहीं छाव में उस पेड़ की

तुम निश्छल सो गयी 

और वहीं सिमट कर रह गईं

उस मिट्टी में 

शीतलता से मिल गयीं

देखा था एक अंकुर 

फूटते हुए इक दिन

क्या आ रही हो लौट कर

मेरे लिए हे प्रिय


जब जब हवा है चलती

उसी आम के पेड़ से गुज़रती

तोड़ लाती तब मेरे लिए

एक एक उसका सूखा पत्ता 

पत्ते पे हो सवार आ जाती

उसकी खुशबू से नहाई

उसकी सारी बातें

वो सारी चुराई रातें

और साथ बिताई वो

खट्टी मीठी यादें।


तुम चली गईं

छोड़ मुझे अकेला

अब बेरंग सा लागे

ये दुनिया का मेला

तुम तो लौट कर ना आयीं

बस तुम्हारी खुशबू में लिपटी 

वो आम की सूखी पत्ती

ही है अब मेरे जीवन का सहारा ।



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