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बस तेरी कमी लगती है

बस तेरी कमी लगती है

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मैंने कुछ तो कहा नहीं ,अपने चांद से,

फिर क्यों रौनक ए कमी लगती है।


वह दूर है मुझसे यह जानता हूं मैं फिर भी ,

इस दिल को आसमां भी जमी लगती है।


मेरे जज्बातों को तो देख, फिर छुप जाना,

चांद बताना मुझमें, तुझे क्या कमी लगती है।


मुझे भी उस पाक परवरदिगार ने ही बनाया,

फिर क्यों तेरे हुस्न पर लोगों की नजर लगती है।


मैं तेरे महफिलों की शान तो नहीं बन सका,

फिर आज भी क्यों तेरी महफिल में कमी लगती है।


आज भी वो मंजर वो नजारे वैसे ही है,

तन्हा भटकता हूं उन गलियों में,

बस तेरी कमी लगती है, बस तेरी कमी लगती है।


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