दिल्लगी
दिल्लगी
फुर्सत के दो लम्हे मिले,
तो सोच चल पड़ा तेरी और,
दिल पर लिया जो दिल की बातें,
दिल ही पद गया है कमज़ोर।
नज़रों के सामने कभी चेहरा जो तेरा नज़र आया,
राज़ बयाँ करती हैं आंखें तो गम उभर सामने आया।
हज़ार ख्वाइशों की तरह तेरी बूंदें बरसती गयी,
एक झलक पाने के लिए कबसे ये तरसती गयी।
मुड़ते रहें बिछड़े दिल फिर तलाश करने लहे,
जैसे फ़िज़ा महफ़िल से घुल रंगों में ढलने लगे।
अब तो करवट लेगी रात तेरे हे नाम से,
फिर से जीने की वजह मिलेंगे उस ढलती शाम से!