मेरा लहू
मेरा लहू
है सहीद मेरे हर खून का क़तरा,
जब बढ़ ने लगा मेरे देश की ओरे खतरा।
सींचते हैं ज़मीन को तेरे अपने जूनून से,
देश के वासी जो हिम्मत हमारे तब सोते हैं सुकून से।
कितने औलाद कुर्बान किये हम तेरे ही रहा में,
घर बैठे माँ की नज़रें बीचि तेरे ही चाहा में।
सीने को चन्नी करती है गोली न आया उफ़ जुबां पर,
फक्र है देश को तेरा तेरे हज़ार कुर्बान पर।
दिल न देखा न देखा दर्द बस बढ़ते गए ज़ोर से,
कुटिआ में सिगड़ी की आग ताप्ती गयी इस शोर से।
बाती बुझी न रात गयी वह सोये खुले आसमान में,
लिपटी चादर रेट की ऐसी बारूद उड़ने लगा फरमान से।
लहू का तिरंगा फिर लहेरिया उतने ही शान से,
जान से खेल कर जिस्म गवाया रूह मुस्करिया आन से।
अब तो कर दो मुझको विदा मेरे ही पहचान से,
जिस्म को छोड़ो झंडा गाढ़ो मेरे ही बलिदान से।