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Deepti Agrawal

Abstract

4  

Deepti Agrawal

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इंसान

इंसान

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538


उस दिन देखा था तुम्हे जल्दी जल्दी नुक्कड़ तक दौड़ते हुए 

सुनने में आया था कोई लाश पड़ी थी

उघड़ी हुई , उजड़ी हुई खून में लथपथ

तुम्ही थे जो झट से ढांक दिया था उसे

फ़ोन घुमा एम्बुलेंस और पुलिस को बुलाया था

उस दिन तुम्हारी आँखों में गहन पीड़ा थी

जैसे वो कोई तुम्हारी अपनी हो

लेकिन

वो तो कोई नहीं थी तुम्हारी

फिर तुम क्यों रोए थे उसके लिए ?


फिर से हुई थी हमारी मुलाक़ात 

उमस भरी दुपहरी में

भीड़ से भरी बस में

तुम सौदा पकडे एक कोने में टिके बैठे थे

तुमसे उस वृद्ध के झुकते कंधे देखे नहीं गए

झट अपना कोना छोड़ 

हाथ पकड़ प्रेम से बिठाया था

अपनी बोतल से पानी भी पिलाया था

और फिर एक मीठी लोक धुन छेड़

सब यात्रियों का मन बहलाया था

कोई भी तो नहीं था वहां तुम्हारा अपना

फिर तुम्हारे गानों में इतनी मिठास कैसे थी?


ठीठुर्ती दिसम्बर की वो काली रात

याद है मुझे वह भी

कैसे तुमने प्यार से 

उस सड़क पर ठण्ड से तड़पते 

कुत्ते के पास आग जला

गर्म दूध पिलाया था

साथ में अपना कम्बल भी उसे उढ़ाया था

उसने जब कृतघ्नता से

तुम्हारा हाथ चाटा 

तब कैसी भीनी मुस्कान चमकी थी आँखों में

वो भी तो तुम्हारा कोई नहीं था ना?


जब उस मासूम कली को

कुचला था ज़माने ने

उसकी निश्छल हँसी को

छीना था किस्मत ने

रंगीन रेशमी वस्त्र का कर बलिदान

सूती सफेद चादर को अपनाया था

वहशी आंखे छेद गयी थी

तब उसका अंतर्मन

तब उसका हाथ थाम 

सूनी मांग सजा

बढ़ाया था उसका सम्मान

देखा था मैंने

तब गर्व से खड़े थे तुम अपना सीना तान


क्या अब भी ऐसा होता है

कौन हो तुम

आकाश से उतरे देवता हो 

या हो कोई जीता सपना

खिड़की से हर रोज़ अपनी

देखा था तुम्हारा हर काम

ऐसे प्राणी भी होते है 

मैंने तो सिर्फ दरिंदे देखे अब तलक

इस मतलबी दुनिया की भीड़ में 

सिर्फ तुम ही एक

इंसान दिखे हो ।


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