"निर्बाध "
"निर्बाध "
अपने धुन में हैं रमे हुए, अपने मुकद्दर की तलाश में,
अपने साझी से पूछना क्या? वक्त की मार के मुसाफिर हम हैं ।
लौट के आ खड़े हुए हैं हम, जिस मुकाम को कभी छोड़ा था,
वो भी दौर था मेरे निर्बाध का, ये भी दौर है कुछ उसी तरह का।
रास्ते अटपटे मिले थे मुझे, सीधे रास्तों का मैं मुसाफिर था,
आने में देर तो लगी फिर भी, राह और मंजिल भी बड़ी हो गई।
बात जो अधूरी रह गई थी कभी, अब तो कायनात की भी तबीयत है।
मौन होकर जो कभी सोचता हूं,
अपने धुन में हैं रमे हुए, अपने मुकद्दर की तलाश में।
