STORYMIRROR

आत्मनिर्भर

आत्मनिर्भर

1 min
166

तुम धूमकेतु से लगते हो, 

पीड़ित मन की अभिलाषा तुम। 

ये देख के पीड़ा पीड़ित है, 

नई दिशा के आशा तुम। 


तुम रीति-नीति से चलते हो, 

चाहे विराम या गति तेरी। 

अभिव्यक्ति तुम्हारा व्याप्त ही है, 

स्वावलंबन के ढाल तले।


संघर्ष तुम्हारा सब देखे ,

पर साथ नहीं कोई देता है। 

ये मार्ग तुम्हारा अपना है,

तुम चल सकते हो, चलते रहो। 

तुम धूमकेतु से लगते हो,

पीड़ित मन की अभिलाषा तुम। 


Rate this content
Log in

More hindi poem from Dr Abhishek Kumar Srivastava(अपने रीति-रिवाजों, परंपराओं में विश्वास, पूर्वजों के मान-सम्मान के दृष्टीकोण से कार्यों का संपादन,जयप्रकाश नारायण जी एवं गुरुदेव टैगोर जी को मार्गदर्शक मानना। )

Similar hindi poem from Abstract