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सेवा निवृत्त

सेवा निवृत्त

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उम्र गुजर गया यूं ही आहिस्ता -आहिस्ता,

उस समय नहीं था मेरे पास कोई और रास्ता।

वक़्त कैसे कटेगा, नहीं था एहसास मुझे,

खुली आंखों ने जंहा ताउम्र गुजारा था।

जिस बगिया को सीचा मैंने उसको छोड़ के जाना था,

शोर-शराबे की फुलवारी को भी छोड़ के जाना था।

घंटी, नल, कुर्सी, टेबल की अपनी नई कहानी होगी,

चाक-डस्टर की अपनी नई जुबानी होगी,

स्कूल की यादें और कुछ पुरानी निशानी होगी।

उम्र गुजर गया यूं ही आहिस्ता- आहिस्ता,

उस वक़्त नहीं था था मेरे पास कोई और रास्ता।


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