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Shravani Balasaheb Sul

Abstract

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Shravani Balasaheb Sul

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ऐतराज

ऐतराज

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यू तो चरागों से उम्मीदे रोशनी की

मगर हावी है उनपे काली बदरिया

ईस कदर तहलका मचा रही रात कि 

जला के खाक कर गई हो बिजुरिया

फिर भी चीर रही धरती को

बादलों की बेजुबा मनमर्जिया 

थक हार गई वो कहते कहते

खुद के हक में बेदखल अर्जियां

खुद को तरसा के खुद के लिए

भांप बन के मिट गया समंदर

ना रही नदी की अब मंजिल कोई

सूरज की आग ने लूट लिया समंदर

खुद्दार खड़ा हैं लेकिन पर्वत

किसी के एहसान का मोहताज नहीं

खुद ही खुद का नाई है उसको

दुनियां की बेरुखी से ऐतराज नहीं ।


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