बेताबी
बेताबी
लफ्जों के घूँट चखकर, बहक जाने को बेताब
लम्हों की पंखुड़ियाँ समेटकर, महक़ जाने को बेताब
रात के दामन में बेहोशी में, सो जाने को बेताब
सितारों की झगमगाहट में, मगर खो जाने को बेताब
अवकाश के आयाम नापके, जरा ठहर जाने को बेताब
जरा सी बात पे मन, लेकिन सिहर जाने को बेताब
शून्य में खोए हुए बेतहाशा, लिख जाने को बेताब
उस गहराई की कशिश में, कलम रख जाने को बेताब
सवालों पे यूँ खामोश, तो कभी कुछ कह जाने को बेताब
कहते कहते जरा ठहरके, खामोश ही रह जाने को बेताब
जज्बातों की आग को हवा देकर, जल जाने को बेताब
कभी उस सूरज से चाँद होकर, ढल जाने को बेताब
शब्दों को क्रमशः समेटकर, खुद सुलझ जाने को बेताब
याँ रात के बहकावे में आकर, और उलझ जाने को बेताब।
