रिफ्युजी
रिफ्युजी
घर छोड़ा तो ज़िंदगी ने मुसाफिर बना दिया
अपनी ही ज़मीन पर अपनों ने काफिर बना दिया
हम अंजान रहे इस जहाँ की चालाकियों से
दुनियादारी की सुलूकों ने हमे शातिर बना दिया
जो हाथ थामा करते थे किताबेंं कभी
कलमों का वजन भी जिनको थका जाती थी
आज थामते हैं वो हथियार सभी
जिनकी कभी उठ जाने की भी औकात ना थी
मैंने देखा है अपनों को खोते हुए
बीना आंसू के औरों को रोते हुए
मजाल उनकी क्या जो हमे समझा सके
जिनको देखा है हमने खूनी हाथ धोते हुए
चले थे हम भी राहे वतन परस्ती के
क्या मिला हमको बदले मे वतन परस्ती के
लगा के दाग औरों से हमे जुदा किया
कैसे निभाए वादे हम वतन परस्ती के
कभी हाल ने, कभी हालात से सही होने न दिया
किए थे लाख जत न एक भी लफ्ज कहने न दिया
हुए फना हम जिस वत न के हिफाज़त के लिए
अपना होते हुए भी अपने होने का मान न दिया
दगा हमने दि या या हमने खाई है दगा
वैसे तो सारे ही अपने है पर नहीं कोई एक सगा
हालत किससे करे बयां हाले दिल का अपने
मिले सभी को अपने रहा बस एक मैं ही ठगा
आज जब हम खुद से सवाल करते हैं
क्या वजह है जो हम इतना बवाल करते हैं
क्यों अब पहले सा बाकी नहीं जोश हममे
खुद की सि फ़ारिश औरों से किया करते हैं
मार लेना खुद को जरा सा काम नहीं
हौंसला खुद को दे इसके लिए, इतना आसान नहीं
क्या मिलता है खुद की जान गवाने मे यूँ ही
सवाल जब भी उठे मि ले उनके जवाब नहीं।
