यात्राक्रम बेटी का
यात्राक्रम बेटी का
मां की कोख से ही रही खोजती पहिचान
कैसे एक मां तोड़ती दूजी का स्वाभिमान
मैं थी सहयोगिनी कब बनी प्रतिद्वन्दिनी
कमतर भाव दिखा,पालना मेरी दैनन्दिनी
न चाहते हुए भी ,एक फांस सी चुभ गयी
वेध हृदयतल को कांच सी किरच ही गयी
दादी खड़ी ध्रुववत , सहमी मां के पास
कर रहीं थीं अपने कुलदीपक की आस
मां बस एक मां होती, कुछ न आता रास
ममत्व सृजन की होती, एक अधूरी प्यास
2 बहनों के बाद हुआ था मेरा जो जन्म
मानो भाग्य फूटे घर के,ईश्वर रहमोकरम
नर्स ने आकर मां के हाथ दिया चुपचाप
मुद्रा न मिलने से उसे भी लगी अभिशाप
सुन कटाक्ष,मन किंचित मेरा कुम्हलाया
गोद ले सहलाया,मांने विहंस गले लगाया
अजन्मे पुरुष से आक्रोश से भर गयी
एक छोटी सी पड़ी गांठ नासूर बन गयी
हर बात में पति से खीज कुढ़ती ही रही
अंतस् ईर्ष्याभाव सृज मैं कुंठित सी रही
दादी ने बेटे में देखा जो कुलदीपक भाव
आज वही साल रहा था बनकर चाव ।
मैं थी सहयोगिनी कब बनी प्रतिद्वन्दिनी
भोले पति समझे न, ये कैसी अर्धांगिनी?
