नफरत
नफरत
नफरत की आंधियों में, गुलशन उजड़ जाते हैं ।
आबाद हुए घर भी मिनटों में, खाक हो जाते हैं ।
भला किसका हुआ भला, खुद चमन में आग लगा के ?
उसकी लपटों में झुलस खुद ,रात तन्हा बिता के ।
मन में जलती ज्वाला जला दिल को भी रही है ।
अब तो सांसे भी उस धुयें से कसमसा रही हैं ।
पिष्टिपेषण कर न्यूजचैनल आग में घी डालते हैं ।
नफरत के शोलों को हवा दे चिंगारियां भड़काते हैं ।
नफरत मोहब्बत से क्यों भारी पड़ रही है आज ?
लेखक की कलम भी उगल जहर, रही उसकी आवाज।
किसी भी बात को तूल दे, क्यों ऊपर चढ़ा देते हैं ?
स्वमनोभावों का कर विश्लेषण, खोल मन गिरह देते हैं ?
क्यों हम नफरत का बीज बो, जलते और जलाते हैं?
क्यों गन्ने की गांठ जैसी रसहीन बो नीरसता जाते हैं ?
कभी नफरत को नफरत से काटा जा सकता है क्या ?
बांट प्रेम सौगात, दुनिया को स्नेह में बांधा जा सकता या।
जोड़ संबंधों को देखें, टूट नफरत खुद बिखर जाएगी।
प्रेम की दो बूंद सींच देखें अग्नि चिंगारी न सुलग पाएगी।
भय अंतस का ,साझा कर देने से गुबार निकल जाता है।
मन में रख लेने से बुझती आग को भी, भड़का जाता है।
मन का मैल दूर कर आपस में मिल बैठकर जीवन सजा ले ।
बोल दो प्रेम के, बहा गिले-शिकवे अश्रु में, गले लगा ले।
