शबरी के बेर
शबरी के बेर
तू अबला!
है दीन-दुखी
यह दुनिया
स्वार्थ की भूखी
किसका है तू
पथ निहारे?
किस आश में रही
दिन गुजारे?
बोल शबरी!
कौन राम आएगा?!
तेरे बेर अब कौन खायेगा?!
वो पुरुषोत्तम!
किसी घर में नहीं
तेरी, मेरी किसी नजर में नहीं
मिलेगा न चहुं दिशाओं में कहीं
न तेरी इस दीनता पर
अब कोई रहम बरसाएगा!
तेरे बेर अब कौन खायेगा?!
शबरी तेरे इस उपवन में
फूलों के इस शयन में
आसन कौन लगाता है?
जो भी आता, सुनाकर जाता
जूठन कोई न खाता है
जात-पात की है तू मारी
समानता कौन दिलाएगा?!
तेरे बेर अब कौन खायेगा?!
बोल शबरी!
कौन राम आएगा?!!
