ज़रा सी छाँव दे दे ए ज़िंदगी
ज़रा सी छाँव दे दे ए ज़िंदगी
"कल चमन था आज पतझड़ का पहरा हुआ
पलक झपकते ही ये न जाने क्या से क्या हुआ"
कभी ज़माने भर की रौनकें हमसे मिलने आती थी
मुस्कान होठों पर गुनगुनाती थी आज हरसू गमगीनी भरी रंजिश है।
लौट आ ए गुज़रे पलछिन लब खामोश है
हंसी को बिछड़े ज़माना हो गया आँखों में दर्द की ख़लिश है।
मन की बगिया में पतझड़ का मौसम है सूखी टहनी से
तड़पते अहसास में ठहरी ये कैसी तपिश है।
गया वक्त क्यूँ लौटकर नहीं आता क्या कहीं कोई
वापसी का रास्ता नहीं कैसी कुदरत की साज़िश है।
बेखौफ़ था दिल मंज़र था हसीन दर्द की आहट
न गम की परछाई थी आज क्यूँ ज़िस्त पर पड़ी कालिख है।
कैसे मोड़ दे घड़ी की सुई को उल्टी दिशा में की सुहावने दिन
लौट आए न लौटना वापस ये कैसी वक्त की तासीर है।
ज़रा सी छाँव दे दे ए ज़िंदगी धूप में झुलसते तन थक गए
रहगुज़र पर खुशियाँ राह तके चुनौतियां
देना ही फ़ितरत तेरी कितनी वाजिब है।