जो न प्रिय पहिचान पाती
जो न प्रिय पहिचान पाती
जो न प्रिय पहिचान पाती।
दौड़ती क्यों प्रति शिरा में प्यास विद्युत सी तरल बन
क्यों अचेतन रोम पाते चिर व्यथामय सजग जीवन?
जो न तुमसे हृदय लगाती।
प्रबल आँधी सा, विचलित क्यों होता रहता मेरा मन
क्यों कभी बरसता अश्रु नेत्रों से, भिगोता मेरा तन?
विचरता रहता है इत उत।
प्रतिक्षण दुविधाग्रस्त रहता मन, जैसे भयभीत हिरन
जीवन क्यों लगता है, जैसे भयावह अंधियारा वन?
जब आओगे तुम प्रिय।
कमल पुष्प की भांति खिल जायेगा, यह मेरा यौवन
महक उठेगा तुम्हारी सुगंध से, जैसे महकता उपवन।

