जिस्म की भूख
जिस्म की भूख
छू कर जिस्म को मेरे
वो अपना दिल बहलाता है
मानो बरसों की प्यास
वो पल भर में मिटाता है
नोच कर जिस्म को मेरे
वो मर्दानगी दिखाता है
कुछ इस क़दर मेरी मजबूरियों का
वो फायदा उठाता है
कांप जाती है रूह मेरी
जब वो मेरे जिस्म को सहलाता है
एक रात में वो मेरी रूह से खेल जाता है
यूं तो बेवफ़ा में भी खुद से कुछ कम नहीं
हर शाम सजती संवरती हूँ उसके लिए
देख कर मेरे गालों की लाली
वो इस कदर इठलाता है
दबोच कर आगोश में मुझे अपने
अपना हर ग़म भुलाता है
पल दो पल का हमसफ़र मेरा
एक रात का सफर तय कर जाता है
चूम कर सुर्ख लबों को वो मेरे
वो मदहोश हो जाता है...
कर के सौदा मेरी मनहूस रातों का
वो सौदागर बन जाता है
यूं तो बेइंतहा अरमान है इस दिल में
लेकिन ये जिस्म भरे बाजार बिक जाता है
छू कर जिस्म को मेरे
वो अपना दिल बहलाता है...