जिन्दगी
जिन्दगी
खुद से गुफ़्तगू करती ये जिन्दगी
जो चल रही थी थोड़ी कम थोड़ी ज्यादा
बिना कुछ कहे बिना कुछ सुने
न जाने कब बीत जाती थी शाम ,रात
और हो जाता था सवेरा
मन में छुपी अनेकों ख्वाहिशें
और उसकी अपूर्णता
कि जिसके जीवन्त होने की नहीं थी कोई आस
जिए जा रहे हम
कुछ कम कुछ ज्यादा
गमों को तकिया बनाने का जज्बा
और,
खुशियों को कट-पेस्ट करने की कला।
कुछ जिन्दगी ने हमें सिखाया था
और कुछ हमने जिन्दगी को
कि तभी मिला वो मुस्कुराता सा चेहरा
अपने नयनों की चंचलता से
जो कुरेद रहा है मेरी दबी ख्वाहिशें।
छेड़ रहा है प्रेम राग
बिखेर कर मेरी शब्द सरिता में जल तरंग
कर रहा है विवश लिखने को ये प्रेम गीत
बांध के स्वयं के मोहपाश में वो मनमोहन सा
दे रहा प्रेम की थपकियाँ
कभी कम कभी ज्यादा,
गुलमोहर की सिन्दूरी छाँव में गहराती शाम ने
कर ली है उस नटखट से दोस्ती,
अब तो सता रहा चाँद भी
अपनी तिकोनी हँसी से,
जी रही हूँ हर वो एहसास
जिससे अबतक थी वंचित
झूम रही हूँ मैं किन्तु
डरा हुआ है मन कि
कहीं फिर जिन्दगी सिखाना तो
नहीं चाहती है कोई नया सबक
कि जिसे न भूल पाऊँ मैं ताउम्र,
और,
सिसकती बीते मेरी जिन्दगी
थोड़ी कम थोड़ी ज्यादा।।