जीवन का मर्म
जीवन का मर्म
क्षण भंगुर से इस जीवन में
सत्य है क्या, असत्य है क्या
मिथ्या का परिमाण है क्या।
जब पास भी होते हो तो
सब रिश्ते झूठे लगते हैं
एकांत में फिर क्यों सब
अपने लगते हैं।
तुम साथ हो तो कुछ भी सूझे ना
दूर हो तो लगता है
बातें हरदम तुझसे करती हूँ
बस एक बात दे ओ मेरे हमराही !
तुम यथार्थ या तेरी परछाई
तुम से सच्ची है
ये मौन तपस्या मेरी कैसी है।
तुम तक ही जाना
तुम से ही मिलना
तुम को ही पाना
लक्ष्य है मेरा
तुझको पाकर
फिर से मौन साधना।
कर बैठूँ
फिर से एक अनन्त यात्रा
पर निकल पडूँ
क्योंकि
प्रेम मार्ग का
ध्येय यही है, श्रेय यही है।
प्रेम भावना में बाँध कर खुद को
उन्मुक्त हो जाऊँ
उस आकाश में
जहाँ ना बंधन हो मोहपाश का।
बैरागी बन जी जाऊँ
उस धरा पर और फिर
सोचूँना मैं
मार्ग कठिन है
प्रेम कठिन है
इस जीवन का क्या !
यह मिथ्या है
यह जीवन क्षण भंगुर है।।