अल्फाजों से मेरी दोस्ती
अल्फाजों से मेरी दोस्ती
रोज़ के लिखने से
उकता गई हूँ
सोचती हूँ कलम भी सोचता हो
क्या इसे एक पल का
भी चैन नही
फिर एक पल को
चुप हो जाती हूँ।
कलम मेज पर रखी किताब पर
छोड़ जाती हूँ
फिर सोचे है मन ये पापी
बिल्कुल चुप ये रहे भी तो कैसे रहूँ
!
अल्फ़ाज़ों से जो प्यार
हो गया
रूठने मनाने का सिलसिला
भी तो, इसी के संग हो गया
वरना कौन सुनता है।
इस दुनिया में बातें किसी की
फुरसत नहीं किसी को
समझाने की
जज़्बातों की समझ है
किसको।
वाबस्तगी भी तो अल्फ़ाज़ों से
है हो गई
एहतराम भी फिर इन
जुमलों से ही तो है मिली
आराइश के पल भी तो
यही ढूंढती है।
तो बोलो कैसे कहूँ कि आज
अल्फ़ाज़ मेरे आराम फरमाते हैं
जो अल्फ़ाज़ों ने आराम
फरमाने की हड़ताल कर दी
बताओ, फिर हम जैसे कवियों की
फिर हालत क्या होगी।
चलो कुछ पल के लिये सही
कलम को विराम देते हैं
आते हैं जरा मिलके उनसे
देखें फिर
अल्फ़ाज़ क्या रंग दिखाते हैं।।
