जीवन-चक्र
जीवन-चक्र
बाल मन
निर्भय
निश्छल स्वरूप
ना देखे
ठंडी छाँव
ना देखे
जलती धूप
पावन सा
मन का
हर कोना
कभी
हँसना
कभी
रोना
बड़े होते-होते
सब गुण
खो जाते
अजब से
यह दुनिया के
मोह नाते
हल्के हल्के
दबे पाँव
जीवन की
होती छाँव
बुढ़ापा है
ऐसा पड़ाव
ना इच्छा
जगती
समाप्त होता
जाता चाव
जीवन चक्र
घूमता ऐसे
लौटा हो
बचपन जैसे
अकेले आए
अकेले जाना
चंद पलों का
यह सफ़रनामा
कमाई दुआएँ
जाएंगी साथ
बाकि तो
रहते हैं बस
खाली हाथ।