मन की खिड़की
मन की खिड़की
पंछियों सी कलरवता संग
नदियों सा बहाव लिए यह चंचल मन,
दूर कहीं नील गगन में विचरण कर आता है...
जब भी यह मन बचपन जीना चाहता है।
मन की खिड़की का जंग लगा द्वार
एक झटके से खुल जाता है,
जब बारिश की कोमल फुहार बन बचपन...
सुर्ख़ रेगिस्तान सरीखे मन को भीगाता है।
लुका-छिपि का खेल खेलते-खेलते
जाने कब बचपन बीत गया,
देखो लुका-छिपि खेलने की जिम्मेदारी
इस बार मन को सौंप गया...
स्वयं के मन से लुका-छिपि खेलते-खेलते
जाने कब मन की खिड़की का द्वार खुल जाता है,
और मनुष्य अपने ही मन के द्वारा...
अपनी नज़रों में चोर की भांति पकड़ा जाता है।
सुनो ना...
क्यों? करते हो कैद मन को
व्यर्थ की जंजीरों से,
कौन? है जो लड़ सका
यहाँ अपनी तक़दीरों से।
तक़दीर में लिखा संवारने को
नये भेष में ढ़लना होगा,
बंद पड़ी जर्जरित चौखटों से
मन को टटोलने होगा...
शायद,
कोई मन की खिड़की खुली मिल जाए
नयी खुशबू फ़िज़ाओं में बिखर जाए।
इस बार,
उस खुली खिड़की को
बंद ना होने देना तुम...
स्वयं हो हकदार तुम...
अपने मन के सुख-दुःख रूपी परिणाम के,
इसे अंधेरे में ना खोने देना तुम।
उजाला,
एक सुराख से भीतर आकर भी
उम्मीद की रोशनी जगाता है,
फिर मन की पूरी खिड़की तो सब रोशन कर जाएगी
बस देखना है,
तू कितना सब्र कर पाता है।
कहाँ ख्वाहिश ज्यादा कर पाता है यह मन,
जब मनाने वाला कोई ना हो...
नाराज़गी का अधिकार भी छीन जाता है।
गैरों का तो खैर क्या कहें,
अपनों के अनुरूप नहीं ढ़ल पाता है मन,
जिद्दी-बिगड़ैल जाने क्या-क्या...
लोगों द्वारा दिए तमगे पहन जाता है।
द्वार पर बैठकर बाट जोहते-जोहते
मन जब थक सा जाता है,
तब इस मन को...
खिड़की का होना ही सुकून दे पाता है।
इसीलिए,
खोल दे मन की खिड़की को
स्वच्छन्द बयार को भीतर आने दे...
महसूस कर एहसासों को
जीवन कुछ यूँ जी जाने दे...
सपनों को मत रख तकिए के नीचे
हकीकत में इन्हें बदल जाने दे...
मत रोक कदम अपने
इन्हें जिद्द अपनी मनवाने दे...
बाद में पछताने से कुछ ना हाथ लगेगा
भोर का सूर्य पूरे दिन तलक ना खिलेगा
मस्तमौला है मन अपने यथार्थ स्वभाव से
इसकी मस्ती में कोई खलल ना आने दे...।
