जी चाहता है
जी चाहता है
जी चाहता है झाँक आऊँ कभी
मानव मस्तिष्क का हर कोना
विचरण करूँ स्वतंत्र
मानवता के गूढ़ रहस्यों के मध्य
कर लूँ निज को अति छद्म, सुक्ष्म
जिन अबूझ, अगूढ़ रहस्यों पर पड़ा है एक गहन आवरण
विभिन्न अन्वेषणों ने भी होने न दिया
जिन से किसी को भी पूर्णतया आत्मसात
परन्तु मैं हो जाऊँ पारंगत, पारखी
पर क्या यह सम्भव है
विज्ञान ने तो प्रयास किया है वर्षों
मनुष्य भी निज को समझने की आकुलता से व्याकुल
करता आ रहा है यही प्रयत्न
परन्तु क्या कोई सफल हो सका है कभी ?
मस्तिष्क की तो छोड़िए
मन का हर कोना छू लेने का प्रयास
हर भाव बूझने को अनायास
जाने कितनों ने किया कठिन अभ्यास
परन्तु मन की गहराई में पैठना इतना सरल तो नहीं
सोचती हूँ
रहस्यों से भरा मानव-मस्तिष्क
क्या कभी खोल पायेगा स्वयं को
एक खुली किताब की तरह
जिस प्रकार खुला है मेरा व्यक्तित्व
काश मैं भी समझ सकूँ
मनुष्य का मनुष्य के प्रति व्यवहार
सदगुण आचार ।।
