नज़्म काफी
नज़्म काफी
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चाय नहीं पीता था वह,
कड़वी कसैली ज़्यादा मीठी, कॉफ़ी उसको अच्छी लगती।
और मैं चाय की दिवानी थी, कड़वी चीज़ों से डरती थी।
बेलज़्ज़त सी इस दुनिया सब कुछ कितना तल्ख़ लगा था।
वह खु़द भी तो कड़वा ही था।
मीठी बात न करता मुझ से, दूर हमेशा रहता मुझ से
वह मेरे जज़्बात न समझा, क्योंकि वह कॉफ़ी पीता था।
कड़वी कसैली ज़्यादा मीठी काफ़ी उसको अच्छी लगती।
और एक दिन फिर उसने आखिर
अपनी सारी कड़वाहट को मुझ पर यूं ही डाल दिया था।
अब मैं भी काफी पीती हूँ।
कड़वाहट से भर बैठी हूँ।।।
