जिद्दी आईना
जिद्दी आईना
बिसरे यादों ने आज खूब रुलाया है
मैंने भी खुद को बहुत समझाया है।।
बहलाने से ये वक्त बहलता है कहाँ
रूखे पलों को भी मैंने सहलाया है।।
हर मिन्नतें नाकाम हो जाने के बाद
खामोशी उनके सर तो हिलाया है।।
यकीं कर लूँ क्यों आपकी बातों पर
हर बार आपने ख़ुद को झुठलाया है।।
रात की बातों को भूल जाया करो,
सुबह का सूरज अगर मुसकाया है।।
ख़ुद की शक्ल ख़ुद को इतना पसंद नहीं
आज फ़िर आईने को फुसलाया है।।
मगर मालूम है खुद के राज़ जिसे
शीशे के सहारे उसने मुखौटा उगाया है।
दरक आईने में फिर भी छुपाता नहीं
फटे होंठों पे दर्द फ़िर भी मुसकाया है।।
