इश्क़वाला चाँद -2
इश्क़वाला चाँद -2
कल रात चाँद फिसल के
मेरे अंक से क्या लग गया।
सहचरी वो चाँद की
चाँदनी को बुरा लग गया।
छोड़ के शीतलता
उद्विग्न सी थोड़ी हो गई।
देख के संग चाँद को
वो मुझसे रुष्ट हो गयी।
मुझसे बोली लोगी क्या
छोड़ने का चाँद को,
तारों से झोली भर दूँगी
खोलो पोटली की गांठ को।
मैंने कहा री चाँदनी
तू तो है उसकी संगिनी
मेरा क्या है मैं तो ठहरी
मीरा सी बैरागिनी।
कभी माथे पे बिंदिया सा
उसको मैं सजाती हूँ।
कभी चाँद की चूड़ामणि
जूड़े में सजाती हूँ।
कभी मोगरे की टहनी पे
उसको बिठा के,
सारी रात यूँ ही बस
बातें किया करती हूँ।
फिर मैं तो अकेले नहीं
उसपे आसक्त हूँ,
वो भी तो झरोखे से मुझे
झाँकता हर वक़्त है।
किया नहीं मैंने कोई
जादू या टोना,
प्रेम में समर्पण को
पड़ता है बोना।
एक तू है जो तज देती उसे
अंधियारे पाख में,
तब मैं ही तो रखती हूँ उसे
पलकों के बीच में।

