इंसानियत
इंसानियत
जल रहा हूँ, सुलग रहा हूँ।
मुझे बसाने वाले लोग भूल चुके हैं इंसानियत।
हाथों में तलवार और लाठियां लिए फिर रहे हैं
कभी धर्म, कभी जाति और यहाँ तक
प्यार के नाम पर भी लड़ रहे हैं।
सड़क पर काँच के टुकड़े बिखरे पड़े हैं,
कुछ जूते-चप्पल भी पड़े हैं।
किसी कोने में रोते बिलखते बच्चे दिख रहे हैं
तो किसी कोने में स्त्रियों की अर्ध नग्न लाशें पड़ी हैं।
हर घर से हर उम्र की एक लाश पड़ी है।
कुछ जिन्दा, पर आत्मा से मरे हुए लोग
मृत शरीरों के हाथों से सोने की अंगूठियां,
जेबों में से पैसे निकाल रहे हैं।
कुछ मरी हुई स्त्रियों को छूकर,
शरीर में गर्मी तलाश रहे हैं।