प्रकृति की प्रवृत्ति
प्रकृति की प्रवृत्ति
मौन है सदा प्रकृति, शांत है इसकी प्रवृत्ति,
स्नेह ममता वात्सल्य में, है माँ सी कीर्ति।
पालन पोषण करती सदा, देती है नेह अनंत,
देखभाल करती रहती, जन्म से मृत्यु पर्यंत।
पर है कहाँ ठीक आजकल, मनुज की प्रवृत्ति,
दिनों दिन देखो जाए हैं, उसकी चाह बढ़ती।
कर रहा दोहन अज्ञानी, दिन रात प्रकृति का।
मिटने को आया है अब, अस्तित्व धरती का।
लूट रहे संतान ही ये, माँ प्रकृति की अस्मिता,
हो गई है क्रुद्ध अब, है मनुज का दिन बिता।
मौन है तो मत समझना,अबला और हीन है वो,
ले अगर प्रतिकार तो, करती सब विलीन है वो।
हे मनुज कर चिंतन, थम जा कुछ देर को अब,
सब कुछ मिट जाए यदि, फिर क्या करेगा तब।