मजदूर पिता
मजदूर पिता
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एक पिता वो भी है मजबूर,
दो रोटी को बना मज़दूर।
दिन रात पसीने बहा बहा के,
जो बन पड़ता देता ला के।
है अंधकार में जीवन उसका,
पर बेटे को दे हर मौका।
घर भले ही खाली है,
सपनों से ही दीवाली है।
बाल मन जब उड़ाने भरता,
नई नई इच्छायें करता।
होता है दुखी सब सुन सुन के,
सपने तोड़े कैसे बुन बुन के।
जवाब नहीं है जो कुछ कहता,
मन ही मन है पल पल मरता।
हाड़ सूखा के, माँस तपा के,
जो लाया है, न बचता खा के।
जीवन जीना ही दूभर है,
फिर कहाँ सोचे कुछ ऊपर है।
मरते हैं सपने भी घुट घुट के,
आँखों में आते आँसू छुट छूट के।
सोचे कौन भला सहारा देगा,
हमें तो ऐसे ही जीना होगा।
बड़ी मुश्किल से दिल को समझाए,
स्वयं को सच में ही जीना सिखलाये।
