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अमित प्रेमशंकर

Tragedy

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अमित प्रेमशंकर

Tragedy

कलयुग रे कलयुग!!

कलयुग रे कलयुग!!

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कलयुग रे कलयुग!ये क्या कर दिया

साँसों में ग़म का ज़हर भर दिया

इतना बता दे कि- क्या थी ख़ता

जो श्मशान सारा शहर कर दिया!!

गाँव भी न छोड़ा,नगर भी न छोड़ा

मन मर्ज़ी अपनी,जिधर चाहा दौड़ा

तूने सारे जहां में कसक भर दिया

कलयुग रे कलयुग! ये क्या कर दिया!!

निकले थे घर से जो,घर के लिए

आँखों में सपना सजाए लिए

उन सपनों को तु चकनाचूर कर दिया

कलयुग रे कलयुग!ये क्या कर दिया!!

मेहनत से जिनके,ये चलती है दुनिया

जिनके पसीने से पलती है दुनिया

उन्हें चलने को पैदल विवश कर दिया

कलयुग रे कलयुग!ये क्या कर दिया!!

अश़्कों की धारा,हुई फिर न कम

रो-रो के पुछे अमित की कलम

ये किस दोष का तु सज़ा दे दिया

कलयुग रे कलयुग!ये क्या कर दिया!!

          



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