हमसे शिकायत है उनको
हमसे शिकायत है उनको
शिकायत है उनको हम नज़र भर नहीं देख्ग्ते
उतरकर रूह में कातिल दिल क्यों नहीं फेंकते
मगर ख्यालों में आकर ये सब जताते क्यों नहीं
चाँद और तारों से अक्सर हमारा ज़िक्र करती हैं
दुआ करके सुबह शाम हमारी फ़िक्र करती हैं
मगर कनखियों से करके इशारा बताते क्यों नहीं
खत में लिखकर बताया उनसे बात नहीं करते
ऐसी भी क्या बेरुखी अब मुलाक़ात नहीं करते
मगर रूठे हुए को आकर कभी मनाते क्यों नहीं
खफा हैं क्यों अब हमारे अंदाज़ बदल गए हैं
अनजाने में किसी और गली में फिसल गए हैं
मगर अल्हड़पन से दिल को रिझाते क्यों नहीं
बुझी-बुझी-सी रहती हैं बात ये हम जानते ह
आग उधर भी लगी होगी बात ये हम मानते हैं
मगर भड़की चिंगारी को कभी बुझाते क्यों नहीं
खबर है पलकों में सजाकर रक्खा है हमको
नज़र न लगे सीने में छिपाकर रक्खा है हमको
मगर मुस्कुराके कभी दिल से लगाते क्यों नहीं।