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हे री ! मन बिसरत नहिं बनवारी

हे री ! मन बिसरत नहिं बनवारी

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हे री ! मन बिसरत नहिं बनवारी।

जब तैं श्याम सिधारे मथुरा सुध तन मन सखी बिसारी।

घर अंगना कछु मनहिं न भावै मोहन नैनन छवी तुम्हारी।।

बरसत नैन चैन नहिं जिरया विरहा देह पजारी।


गऊ रंभांवैं मौन भई बंसुरी तुमसैं साँस हमारी।।

कान्हाँ कंचुकि कबहुँ न सूखै जात न दशा संभारी।

प्रखर संदेशो नंदलला तैं कहियो दिन दिन ख्वारी।।


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