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Anju Singh

Abstract

4.7  

Anju Singh

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" हाथ की लकीरें "

" हाथ की लकीरें "

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अजब ग़ज़ब होती हैं 

हमारें हाथ की लकीरें

हमारे हाथ में तो होती हैं

पर हमारे हाथ में नहीं होती


ये टेढ़ी-मेढ़ी लकीरें

यूं खींची है हमारे हाथों में 

जैसें जानें को मंजिल पर

कई रास्तें आते हैं नजर

पर किस रास्ते से जाऊॅं

यह आता नहीं है नजर


अकसर इंसान खो जाता है 

उलझी हुई लकीरों में

सोचता है ,समझ ना पाता

क्या बात है इन लकीरों में


इन लकीरों में जानें

कौन सी राह खींची है

क्या गुजरे हुए लम्हों की

तस्वीर खींची है इन लकीरों में

या फिर जो वक्त आएगा

वह खींचा इन लकीरों में


बंद होती हथेली में 

गहराई नजर आती है

भूत का पता लगाने की

या फिर भविष्य को जानने की

शायद इन लकीरों से

गहराई मापी जाती है


इंसान की हथेलियों की 

इस अबूझ पहेली में

यह लकीरें भी ना जानें 

कितने खेल दिखाती है

खुद की मुट्ठी में रहकर भी 

किस्मत को नचाती है


ईश्वर ने भी क्या गजब कलाकारी की है

इंसान की जिंदगी उसकी 

हथेली में ही संजो दी है

यह लकीरें ना जाने इंसान को

कितनी पहेलियां बुझातीं है

जो कभी समझ नहीं आती है


शायद ये लकीरें ही नहीं

इंसान की तकदीर है

जो पूरी उम्र चलती है साथ

सदा रहती है अपनें हाथ


कभी लगता है यूं

ये लकीरे बंद है मुट्ठी में

फिर भी किस्मत को आजमाती है

मुट्ठी में बंद रहकर भी

इंसान को कैसे नचाती है


कभी फुर्सत में इन हथेलियों को 

मैं निहारा करती हूं

उलझी हुई लकीरों को समझने की

मैं नाकाम कोशिश करती हूं


माना कि हाथों की 

ये लकीरें नहीं बदलती

पर किस्मत का लिखा 

शायद रोज बदलता है।


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