गूँज-रूह की खलिश
गूँज-रूह की खलिश
रूह की खलिश
कल पानी-सा कुछ जो पलकों से था बहा,
अश्क के छीटें थे या गुबार सांसों का,
था पर फीका सादा-सा ही,
हाँ शायद रूह की खलिश थी बेरंग बेस्वाद-सी |
कहते हैं अक्सर आंसूं नमकीन ही होते हैं,
पर मलाल की चादर ओढ़ रखी थी इस कदर,
की कुदरत की कायनात भी अपनी कारीगरी के आगे बेजुबान खड़ी रही |
रंज थी या दर्द के कोहरे में लिपटे थे,
कोशिश तो बेइन्तेहाँ की उन अब्र के कतरों को पढ़ने की,
पर उठते ही कदम रुक गए,
एक रोष का झरना बह रहा था उदासी के उस जंगल में
गुम होने के डर से लौट गए मतलब तलाशने वाले सभी|

