स्पर्श
स्पर्श


मेरे जिस कांधे से लग कर
अक्सर रो - रो कर
एक सुकून पा लिया करती थी
दशकों बाद भी वह
तेरे अश्कों से अब भी है नम
उस अंतिम आलिंगन की खुशबू
कोई इत्र न तोड़ पाया आज तलक
और कभी कभी ख्वाबों में
तुम्हें सोचते सोचते
जब मैं भावविभोर हो जाता हूं
तब महसूस होती है
एक स्पर्श की गुनगुनी तपिश
जो कर जाती है परेशान बेतरतीब
और एक अदृश्य कोने से
कानों में आती एक प्रतिध्वनि
तुम कहां हो कैसे हो
कर जाती है अक्सर बेचैन
लगता है तुम यहीं कहीं हो
पर यह भी सच है
तुम हो
पर अब मेरे नहीं हो
बावजूद इसके
एक अनुभूति
एक स्पर्श विहीन सुकून
वो कोई नहीं
शायद नहीं
पर यक़ीनन
वो तुम ही हो।