गुमनाम शायर
गुमनाम शायर
अपने कलेजे को चीर कर
एक एक लफ्ज़ जो निकले थे
कोरे कागज़ पर उतारे थे
दिल के खूब करीब थे
क्या सुनहरे दिन थे वो
मेरे अल्फ़ाज़ लोगों के
जीने का सहारा बन गये थे
तालियों के गूंज की आदत सी पड़ गई थी
खूब शौहरत कमाएं
हंसाया रुलाया प्यार में भिगोया
कलम से क्या मोहब्बत की मैंने
नगमों की बौछार होने लगी
आज ढलती उम्र में
पीछे मुड़कर देखता हूं तो
भीड़ से भरे चौराहे कब की छूट चुकी थी
सन्नाटे के साहिल पर खड़ा हूँ मैं
वाकई आज भी मेरे अलफाजों को
गुनगुनाते हैं लोग
पर मैं छिप गया हूँ कहीं
मेरे झुर्रियों के नीचे
थोड़ी सी तसल्ली तो है
आज भी मैं जिन्दा हूँ
मेरे हर पंक्तियों में
पर जीते-जी दफ़न हूँ गुमनामी में
आज़ भी जीगर में दम है
कलम थाम सकता हूं
लेकिन सुनता कौन ??
हमेशा से राम से बड़ा उनका नाम
मान गए तेरी खुदाई को......
अब कौन बताए उनको
मैं वही हूँ जो कभी हर दिल पे राज़ किया
आज भी आपके पास पास हूँ
एक अजनबी बन के।