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Lipi Sahoo

Tragedy

4.8  

Lipi Sahoo

Tragedy

गुमनाम शायर

गुमनाम शायर

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624


अपने कलेजे को चीर कर

एक एक लफ्ज़ जो निकले थे

कोरे कागज़ पर उतारे थे

दिल के खूब करीब थे


क्या सुनहरे दिन थे वो

मेरे अल्फ़ाज़ लोगों के

जीने का सहारा बन गये थे

तालियों के गूंज की आदत सी पड़ गई थी


खूब शौहरत कमाएं

हंसाया रुलाया प्यार में भिगोया

कलम से क्या मोहब्बत की मैंने

नगमों की बौछार होने लगी


आज ढलती उम्र में

पीछे मुड़कर देखता हूं तो

भीड़ से भरे चौराहे कब की छूट चुकी थी

सन्नाटे के साहिल पर खड़ा हूँ मैं


वाकई आज भी मेरे अलफाजों को

गुनगुनाते हैं लोग

पर मैं छिप गया हूँ कहीं

मेरे झुर्रियों के नीचे


थोड़ी सी तसल्ली तो है

आज भी मैं जिन्दा हूँ

मेरे हर पंक्तियों में

पर जीते-जी दफ़न हूँ गुमनामी में


आज़ भी जीगर में दम है

कलम थाम सकता हूं

लेकिन सुनता कौन ??

हमेशा से राम से बड़ा उनका नाम 

मान गए तेरी खुदाई को......


अब कौन बताए उनको

मैं वही हूँ जो कभी हर दिल पे राज़ किया

आज भी आपके पास पास हूँ

एक अजनबी बन के।



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