मैं सूखी मिट्टी
मैं सूखी मिट्टी
मैं मिट्टी थी और रहूँगी मिट्टी ही,
ईश्वर ने मुझे भेजा मेरे हृदय में अथाह प्रेम भरकर।
मैं धरा पर उतरी तुमसे प्रेम करने के लिए,
तुम मिले मैंने तुम्हे देखा,
तुम मुरझाए हुए पौधे थे,
बहुत लाचार, त्रस्त, कुम्हलाए और प्यासे।
मैंने सींचा तुमको अपने प्रेम नीर से,
मेरे प्रेम का एक-एक बूँद तुम में बस गया।
मैं रिक्त होती रही,
लेकिन फिर भी तुम्हें सींचना ना छोड़ा।
बस ऐसे ही मेरे प्रेम का प्रत्येक कण तुम में समा गया,
और तुम खिल उठे, हँस पड़े, लहलहाने लगे।
इस हँसाने और खिलखिलाने की प्रक्रिया में मैं भूल गई अस्तित्व अपना,
मैं मिट्टी थी क्या ही था मेरा सपना?
अपना प्रेम लुटाने के बाद अब मैं बस हूँ सूखी मिट्टी,
बेकार, बेजान और बंजर।
अब इस मिट्टी पर ना कोई बीज पड़ेगा,
ना कोई पौधा उगेगा,
ना ही इस मिट्टी को कोई छूना चाहेगा,
और ना ही यह मिट्टी अब किसी और काम आएगी।