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स्वतंत्र लेखनी

Others

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स्वतंत्र लेखनी

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क्या पता

क्या पता

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हम घट रहे हैं पल-पल,

बढ़ते हुए इन लम्हों के साथ,

पीछे छूटता जा रहा है सबकुछ,

इस ज़ीस्त से बढ़ती इन उम्मीदों के साथ।

ना शौक़ कोई अब तो ना मर्ज़ी कोई शामिल है,

बस कट रही है ज़िन्दगी,

बढ़ती मुसीबतें सुनहरे सपनों की कातिल हैं।

सब रुक गया थम सा गया बढ़ती गई इस उमर के साथ,

देखो!तो कितनी रह गई दिल में छिपी अनकही सी बात।

अब समझती हूँ कि क्यों कभी होश खो देते सभी,

तभी तो जी लेती हूँ पल कुछ खुशनुमा होकर अभी।

क्या पता कि कल कोई शौक ज़िंदा ना रहे,

ना मैं रहूँ,ना वक्त हो या फिर सब रहें तो ये मन न रहे।



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