वो शाम
वो शाम
अगर वो शाम ना आती तो ये शाम भी ना आती,
सिलसिले शुरू ही ना होते तो...
बात वहीं कहीं रुक जाती।
कश्ती समझ दामन थामा था,
उस दरिया में जहां कोई ना सहारा था,
कश्ती मेरी थी ही नहीं,
काश! ये बहुत पहले समझ जाती,
कैसे भी हौसलों को जोड़ती,
और शायद ऐसे मेरी जान बच जाती।
