गोरख धंधा ( भाग १)
गोरख धंधा ( भाग १)
सब कुछ अलग सा,
गोरख धंधा सा,
धुल गया सब मैल मलीन,
बस गोरख धंधा रह गया था बाकी,
उधार दिए हैं लम्हे,
मुनाफे में गोरख धंधा बन गए,
आओ परदे के परे दो गुफतगु समेटे,
सलीके कुछ नए और उन तरानों को गोरख धंधा कह दें,।।
ढूंढने जो निकला वो मिल ना सका,
शायद मैं गलत ढूंढने निकला,
क्या नवाज़ू क्या वार दूं,
मैं क्या लिख दूं क्या छोड़ दूं,
तुम से शुरू,
एक लुफ़्त है मैं जिससे दूर हूं,
आओ परदे के परे दो गुफतगु समेटे,
सलीके कुछ नए और उन तरानों को गोरख धंधा कह दें,।।
बाकी तुम हो,
वाजिब भी और बेपरवाह हो,
वक्त आखरी में मिली सदियां हो,
मेरे हिस्से आया गोरख धंधा हो,
मेरा आंगन मज़ार बनाकर अपना आंगन आबाद किया हैं,
बहस को ना अंत ना अंजाम मिला हैं,
आओ परदे के परे दो गुफतगु समेटे,
सलीके कुछ नए और उन तरानों को गोरख धंधा कह दें,।।
एक दौर मांगा जो मैं सदियों से पिछड़ बैठा हूं,
इस तमाशे में एक किरदार मैं भी बन बैठा हूं,
चैन जो बुनता हूं,
बेचैनी के धागे ही पाता हूं,
ऊंचे दाम पर बिकता मुर्दा हैं,
गुलज़ार बदन एक गोरख धंधा हैं,
आओ परदे के परे दो गुफतगु समेटे,
सलीके कुछ नए और उन तरानों को गोरख धंधा कह दें,।।
रूह को कर आज़ाद,
रखा हैं मौत का पहरा दिन रात,
एक पल शोर की शाम हो,
एक पल खामोश पहर हो,
करके शामिल मुझे किया दूर हैं,
उजड़ी बसंत मेरे सुलगे पतझड़ के फूल हैं,
आओ परदे के परे दो गुफतगु समेटे,
सलीके कुछ नए और उन तरानों को गोरख धंधा कह दें।

