गजल
गजल
बेवक्त, बेवजह, बेदर्दों से दिल हम लगाते रहे,
दर्द देकर बेहिसाब हमें खुद वो मुस्कराते रहे।
पसंद था उनको गैरों को तड़पाना हर पल,
हम तो अपना उन्हें समझ कर भी फड़फड़ाते रहे।
सर्द ठंडी ठंडी रातों में भी बैठकर तन्हाई में,
याद करके उनको हम अपना दिल जलाते रहे।
सुबह जल्दी उठ कर भी,
हम उनके दिल के दरवाजे खटखटाते रहे।
थक गए दिन भर की तलाश में जब,
अंन्धेरों की तन्हाईयों में भी हम जुगनु बन कर टिमटमाते रहे।
रहे वो हर पल अपने ही घमंड में सुदर्शन,
हम भी अन्जान बन कर उनसे अपना दिल आजमाते रहे।
पड़ा न फर्क रत्ती भर भी उन्हे
एक हम ही थे उन्हें सच पे सच फरमाते रहे।
उनके तंज कसे रहे कमानो की तरह,
जब जी चाहा वो तीर चलाते रहे।
कर दिया छलनी व जख्मी शरीर के हर हिस्से को बोल
तानों के जब, जब वो सुनाते रहे।
छोड़ दिया अपनों को अपना समझना सुदर्शन,
गैरों से मिलकर जब वो तीर तरकशों से चलाते रहे।
कर दी है डोर उस रब के हवाले अब तो,
जो सभी का सहारा बन कर दूर दुखों दर्दों का निपटारा करे।