ग़ज़ल- कहती हूँ मैं ज़रा
ग़ज़ल- कहती हूँ मैं ज़रा
ये बात उन दिनों की तो कहती हूँ मैं ज़रा
हाँ आज तक सनम पे ही मरती हूँ मैं ज़रा...!! ..
तुम छोड़कर यहाँ पे मुझे क्यों चले गए
पीड़ा सजन अकेली ही, सहती हूँ मैं ज़रा....!!..
मेरा क़रार तुमसे था ऐ सनम मेरे
अब याद तेरी आए तो ,ढलती हूँ मैं ज़रा.....!! ..
तूफ़ान तो चला ही गया छोड़कर मुझे
दीपक की लौ के संग ही जलती हूँ मैं ज़रा....!!..
मिलती रहीं नदी तो ये सागर तभी बनीं
रुकना नहीं कहीं पे भी कहती हूँ मैं ज़रा.....!!.
जब देखती हूँ अक़्स कोई आपका लगे
जब आपका ही अक़्स हो हँसती हूँ मैं ज़रा......!!..
मैंने बड़े जतन से बनाया यहाँ पे घर
औ' ख़्वाब में भी चौकसी रखती हूँ मैं ज़रा...!!...
फ़ूलों की आरज़ू में लगाया था जो चमन
देखूँ खिले चमन को तो खिलती हूँ मैं ज़रा....!!