ग़ज़ल *जीना नहीं छोड़ा*
ग़ज़ल *जीना नहीं छोड़ा*
यकीं टूटा हमारा है, मग़र जीना नहीं छोड़ा।।
मिले हैं ज़ख्म तो बेहद मगर हंसना नहीं छोड़ा ।।
गरीबी में ही बीता है मेरा बचपन मगर तब भी
पढ़ाई थी मेरी मंज़िल कभी पढ़ना नहीं छोड़ा ।।
उड़ाने आसमां तक भी लगाकर देख ली मैंने
जमे हैं पांव धरती पर यहाँ रहना नहीं छोड़ा।।
निगहबानी बुजुर्गों की मयस्सर थी नहीं मुझको
सज़ा मिलती रही चाहे भला करना नहीं छोड़ा ।।
मुझे फुर्सत नहीं मिलती कि मंदिर जाऊँ या मस्जिद
चुरा कर वक़्त फिर भी भक्ति में रमना नहीं छोड़ा।।
महकती इन फ़िज़ाओं में रवाँ हैं शोखियाँ अब भी
तुम्हारे प्यार में हमने खुदी रहना नहीं छोड़ा ।।
इश्क में तो हर सजा थी उसकी जो मंजूर मुझको
फिर न जाने सजा किस बात की मीना नहीं छोड़ा ।।