घरेलू हिंसा
घरेलू हिंसा
एक रोज मुझे समाचार मिला,
मेरी सखी ने जब मुझे कहा....
होती रहती है घर में हिंसा,
कभी ना करता कोई प्रशंसा
अब जीना हो रहा है मुश्किल,
लगता नहीं अब यहां यह दिल
मैंने बोला क्यों ही लेकिन?
तुम यह सब सहती रहती हो?
जाने अनजाने तुम क्यों भला?
यह बोझ वहती रहती हो?
उत्तर था उसका गूढ़ व निराला,
सोच में जिसने मुझको डाला
बोली वह रो रो कर मुझको,
क्या बताऊं अब मैं तुझको
मां-बाप की खातिर सहती हूं,
समाज के लिए चुप रहती हूं
कहीं समझे ना मुझको ही गलत,
यह सोचकर होंठ सिल लेती हूं
कहां जाऊंगी छोड़ कर सफर मैं?
शरण मिलेगी किसके घर में?
मां-बाप का घर तो है भाई का,
और अब यह सफर है विदाई का
ले लूंगी मैं अपने ही प्राण,
नहीं सहा जाता और अपमान
सुनकर उसकी सारी बात,
ठीक नहीं थी मेरे भी हालात
कुछ पल मैंने सोच विचार किया,
फिर लफ्जों से अपने बयां किया
मैंने कहा अरे ओ पगली,
ऐसे तो हिम्मत ना हार
है नैया यह तेरी ही,
तू ही लगाएगी इसको पार
इस हिंसा को तू मत सह,
बोल कुछ और चुप ना रह
बढ़ावा ना दें गलत काम को,
मत भूल अपने सम्मान को
पढ़ी लिखी हो सक्षम हो तुम,
कर सकती हो सब कर्मक्षम हो तुम
बस करने से पहले कुछ भी
इसका अवलोकन कर लेना,
कहीं गलती तुम्हारी भी ना हो
आत्मावलोकन कर लेना
यदि त्रुटि तुम्हारी भी हो,
तो थोड़ा थम जाना तुम
और जीवन जीना खुशी से,
औरों को भी खुश रखना तुम
औरों को भी खुश रखना तुम
